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Channel: मेरी धरोहर..चुनिन्दा रचनाओं का संग्रह
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दुख चाहे हो कितना भी नया.........जयप्रकाश मानस

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पुराने हो जाते हैं 
एक दिन 
कागज, कलम, दवात, स्याही
पुराना हो जाता है कवि, 
एक दिन सारी पुस्तकें
सारे पाठक हो जाते हैं 
एक न एक दिन पुराने
हो जाते हैं एक दिन
मुद्रक, प्रकाशक, वितरक, 
आलोचक सबके सब पुराने
आख़िर एक दिन 
समय भी हो जाता पुराना
दुख चाहे हो कितना भी नया
कविता कभी होती नहीं पुरानी
-जयप्रकाश मानस


वर्तमान में आदरणीय जयप्रकाश जी मानस 
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी हैं
srijangatha@gmail.com

वेबसाईट – www.srijangatha.com




उत्तरायण की धूप... नीलम नवीन ”नील“

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उत्तरायण से बंसत तक
खिली चांदी सी धूप से
मीठी धीमी ताप में एक
उमंग पकने लगती है।।
सर्द गर्म से अहसास,
कहीं जिन्दा रखते हैं
सपने बुनते आदम को
विलुप्त होते प्राणी को ।।
और मुझमें भी अन्दर
धूप सी हरी उम्मीद
मेरा ”औरा“ बनती है
प्रसून जैसी महकती है।।
बुद्ध को सोचने की
एक हद तक फिर
मेरे लिये मुझमें
बोध के रास्ते तलाशती ।।
कहती है जा जा!
खुद के साथ रह
एक दो दिन और
जी अनगिनत से पल ।।
वो साथी बन जाते
मुझमें सासें भरते हैं
मेरी सोच में ही सही
मेरे अपने से होते हैं।।
किन्तु जो बोध सहज
मुक्ति को सरल कर दें
सच कहें ऐसे यथार्थ
आसान नही होते है ।।
-नीलम नवीन ”नील“

फागुन की मीठी धूप...... वीणा विज 'उदित'

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अध खिली धूप में अँगड़ाई लें
पैर पसारें आओ चलकर आँगन में
पौष माघ की सर्दी से थे बेहाल
फागुन की मीठी धूप आई है आज...

मेथी आलू गोभी मूली के पराँठे
उन पर धर मक्खन के पेड़े
खाएँ अचार की फाँक लगा के
फागुन की मीठी धूप में जमा के...

उम्रों की गवाह बूढ़ी नानी दादी
बदन पर ओढ़े रंग भरी फुलकारी
आँगन में बैठ नन्हों से बतियातीं
फागुन की मीठी धूप में खिलखिलातीं...

खुले गगन की हदें नापते नव पंछी
मादक गंध बिखेरतीं नई कोपलें फूटी
खेतों ने रंगीले फूलों की चादर ओढ़ी
फागुन की मीठी धूप खिली नवोढ़ी...

खुला शीत लहर से ठिठुरा बदन
हटा कोहरे की चादर का ढाया कहर
अल्साई निंदिया ने छोड़े लिहाफ
फागुन की मीठी धूप ने दिया निजात....
-वीणा विज 'उदित'

आँसू............रागिनी शर्मा “स्वर्णकार”

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याद बहुत आये थे आँसू
प्यार की कसक भरे वे आँसू
मधुर मधुर उस मधुशाला में
रस से छलक उठे थे आँसू

सरिता से सागर रूठा था
या अवनि से जलधर रूठा था
साथ छोड़ रही थी कश्ती
साहिल का सिसक उठे थे आँसू

प्यार प्यार बस प्यार चाहिए
हर धड़कन पर अधिकार चाहिए
प्रिय की बेरुखी से व्याकुल
होकर हिलक उठे थे आँसू

आओ होली जम कर खेलें....अर्चना सक्सेना

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आओ होली जम कर खेलें
गिले-शिकवे सब को भूलें
और जीवन रंगीन बनाएं
सबको ऐसे गुलाल लगाऐं


क्यों ना आने-जाने वालों को हम
आज अपनी पिचकारी से नहलाऐं
भांग की ठंडाई इतनी पिलाए कि
वो झूमता दिन भर  ही जाये

आज पड़ोस की भाभी से भी
थोड़ी हँसी ठिठोली कर आयें
मेक अप के ऊपर थोड़ा सा
गोल्डन कलर का टच दे आयें

डाँटने वाले अँकल से हम
बॉल नहीं आशीष ले आयें
बहुत सताया हमने साल भर
रंग लगा के आज पैर छू आयें

गली के छोटे- छोटे बच्चों की
आज बड़ी- बड़ी मूँछ बनाये
पर याद रहे कि गुब्बारे से 
चोट किसी को ना लग पाये

गुजिया और दही भल्ले खाकर
हंसी-खुशी सब होली को मनाऐं
तो फिर बहुत मजा आ जाये
तो फिर बहुत मजा आ जाये

सामंजस्य.....मल्लिका मुखर्जी

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कितना सामंजस्य है
सपनों और वृक्षों में !
दोनों
पंक्तियों में सजना पसंद करते हैं ।
कितना भी काटो-छाँटों
उनकी टहनियाँ,
तोड़ लो सारे फल चाहे
नोंच लो सारी पत्तियाँ,
मसल दो फूल और कलियाँ;
फिर भी पनपते रहते हैं
असीम जिजीविषा के साथ
जब तक उन्हें
जड़ से न उखाड़ दिया जाए ।

बचा हो जहन में बीज तो
अवसर मिलते ही
फिर बेताब हो उठते हैं
अपनी-अपनी जमीं पर
अंकुरित होने के लिए !
















-मल्लिका मुखर्जी

रोज़ एक मेंढक खाइए!....निशान्त मिश्रा

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रोज़ एक मेंढक खाइए!...
ऊपर वाली लाइन पढ़कर चौंकिए नहीं. सुबह उठने पर आपको सबसे पहला काम यही करना है… आपको एक मेंढक खाना है.

ओह! तो आप भी मेरी तरह शाकाहारी हैं… कोई बात नहीं… फिर भी आप सुबह-सुबह एक मेंढक खा सकते हैं.

शायद मार्क ट्वेन ने ही यह कहा था, “यदि आपका दिन का सबसे पहला काम एक मेंढक खाना है तो बेहतर होगा कि इसे आप सुबह उठते ही कर लें. और यदि आपको दो मेंढक खाने हों तो उनमें से बड़े वाले मेंढक को पहले खाना सही रहेगा.”

सुबह उठकर मेंढक खाने का तात्पर्य यहां दिन में सबसे पहले उस काम को पूरा कर देना है जिसे आपको मजबूरी में करना है. आप यह काम बिल्कुल भी नहीं करना चाहते. लेकिन आपको यह काम हर हाल में जल्द-से-जल्द करना है. यह वह काम है जिसे आज करने का संकल्प लेकर आप रात में सोए थे.

मेंढक खाने का अर्थ यह है कि आपको इसे हर हाल में करना है अन्यथा मेंढक आपको खा जाएगा… मतलब आप पूरा दिन इसे टालते रहेंगे और काम नहीं हो पाएगा. लेकिन अपना मन मारकर, अपने कलेजे पर पत्थर रखकर, कुछ समय के लिए टिके बैठे रहकर, कुछ देर के लिए दुनिया और दोस्तों से खुद को काटकर यदि आपने यह काम पूरा कर लिया तो आपके ऊपर से बड़ा बोझ उतर जाएगा. आप खुद को हल्का महसूस करेंगे. आपका पूरा दिन अच्छे से बीतेगा. आपमें यह भावना उत्पन्न होगी कि आपने कुछ अचीव कर लिया है और आप चाहें तो और भी कठिन काम कर सकने में सक्षम हैं.

आप इन मेंढकों की पहचान कैसे करेंगे?

यह बहुत आसान है. अपने काम को इन कैटेगरीज़ में बांट लीजिए –

वे काम जिन्हें आप करना चाहते हैं और जिन्हें करना ज़रूरी है.
वे काम जिन्हें आप करना चाहते हैं लेकिन जिन्हें करना ज़रूरी नहीं है.
वे काम जिन्हें आप नहीं करना चाहते पर जिन्हें करना ज़रूरी भी नहीं है.
वे काम जो आप करना नहीं चाहते, लेकिन जिन्हें करना बहुत ज़रूरी है.

मेंढक वे काम हैं जिन्हें आप बिल्कुल भी नहीं करना चाहते लेकिन जिन्हें करना बहुत ही ज़रूरी है. इनका कोई आल्टरनेटिव नहीं है. ये काम आपको ही करने हैं. कोई दूसरा इसमें आपकी मदद नहीं करेगा.

किसी भी ज़रूरी काम को करने में हम टालमटोल इसलिए करते हैं कि हममें उसे करने की इच्छा नहीं होती या पर्याप्त मोटीवेशन नहीं होता या हमें वह बहुत कठिन लगता है. हमें हमेशा यही लगता है कि हम किसी दिन वक्त निकालकर उसे जैसे-तैसे पूरा कर लेंगे लेकिन वह दिन कभी नहीं आता. हमें उसे हर हाल में जल्द-से-जल्द पूरा करना है लेकिन उसे करना टलता रहता है. डेडलाइनें हमारे सर पर सवार हो जाती हैं. ऐसे में यदि हम झक मारकर वह काम कर भी लेते हैं तो वह इम्प्रैसिव नहीं होता. उसे देखकर कोई हमारी तारीफ़ नहीं करता.

इसलिए हर दिन सुबह-सुबह एक मेंढक खाने की आदत डाल लीजिए. शुरुआत में यह काम बहुत कठिन लगेगा. लेकिन जैसे-जैसे आप यह काम करते जाएंगे, आपको अच्छा लगने लगेगा और आपके काम में और जीवन में अभूतपूर्व सुधार आएगा. आप हर दिन बेहतर बनते जाएंगे.

तो… कल से शुरुआत करें?
-निशान्त मिश्रा

यह पोस्ट Quoraपर गौरव नाम्टा के एक उत्तर पर आधारित है. गौरव मैकेनिकल इंजीनियर हैं और कोलकाता में रहते हैं.

कोरे पन्ने......अलका गुप्ता

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अन्तः करण कि आवाज थी ...कहाँ ?
कभी ...आत्मा कि अनसुलझी पुकार ||

नित नए... अवसाद समेटे हुए ....
या कभी....विवादित से हुए वो छार ||

डायरी में रहे क्यूँ शेष ये कोरे पन्ने |
सिकुड़े से कुछ गुंजले पीले से कोर ||

थी... क्या व्यथा ...ऐसी ...जो ..
उभर ना सके थे शब्दों के अभिसार ||

मिल न सके ...क्यूँ ....स्मृतियों के ...
बेचैन से लिखित ...........कोई छोर ||

आज जो रुक गए आकर ..आवक ...
कोरे पन्नो पे पलटते अँगुलियों के पोर ||

उकसा रहा मन विकल कोरे इन पन्नों से |
कोरे रह जाने के अनसुलझे से तार ||

आंदोलित करते रहे पुरानी डायरी के ...
अनलिखे...... ये .....शब्द सार ||

या आवाक है हटात ...व्यर्थ रहा ..
जीवन यूँ ही रहा ....कोरा सा ... सार ||

-अलका गुप्ता 

क्या कहूंगा,,,,,,,,केशव शरण

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क्या मैं कह सकूंगा
मालिक ने अच्छा नहीं किया
अगर किसी ने
मेरे सामने माइक कर दिया

क्या मैं भी वही कहूंगा
जो सभी कह रहे हैं
बावजूद सब दुर्दशा के
जो वे सह रहे हैं
और मैं भी

क्या मैं भी यही कहूंगा
कि आगे बेहतरीन परिवर्तन होगा
मालिक की हालिया कठोर नीतियों से
भविष्य में हमारा सुखमय,सरल जीवन होगा
-केशव शरण 

चतुर एकलव्य..........शोध छात्रा हेमलता यादव

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निषाद-पुत्र
एकलव्य का
दाहिना अंगूठा आज
तक नहीं उग पाया।
गुरु द्रोण
जो उच्चवर्ण के
एकाधिकार संरक्षण हेतु
मांगा था आपने।
जब
सह न पाए थे
प्रखर एकलव्य का
समानता प्राप्त करता कौशल।

सदियों उपरांत
आज भी
जंगल के किसी
कोने में पड़ा
एकलव्य का
अंगूठा फड़फड़ा
रहा है छिपकली
की पूँछ की तरह;
दुबारा उगने के लिए।

गुरू द्रोण
क्या अब पुनः आओगे
एकलव्य से
गुरू दक्षिणा लेने?
जब उसके हाथों में
बाणों की जगह
कलम की शक्ति
भूस देगी प्रत्येक
भौंकने वाले
कुत्ते का मुंह;
अब क्या मांगोगें
अनामिका, माध्यिका-
या तर्जनी?

इस बार इतने
विश्वास के साथ
मत आना गुरू द्रोण--

सदियों के उत्पीड़न ने
एकलव्य को
चतुर बना दिया है---

अंगूठा तो उगा
नहीं लेकिन--
आपकी पक्षपाती
दृष्टि देखकर-
उंगुलियां काटने से पहले
एकलव्य सोचेगा ज़रूर...!
-शोध छात्रा हेमलता यादव

सकारात्मक सोच.......मल्लिका मुखर्जी

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मुद्दत के बाद,
आज अचानक
चलते-चलते
नज़र पड़ी
धरती का सीना चीरकर
निकलने वाली
उन हरी-हरी कोपलों पर !

सोच रही हूँ,
यह प्रकृति की उदारता है,
मेह का स्नेह है
या
बीज का साहस
जो धरती की गोद में छिपकर
राह तक रहा था
सही समय का ?
-मल्लिका मुखर्जी 

दुनिया बदली खुद भी बदलो.........सुखमंगल सिंह

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हृदय द्वार बंद हों खोलो,
प्रेम सरोवर दुबकी ले लो।
घिरे प्रलय की घोर घटाएं,
शान्ति दीप निज धरा सजा दो।

लोकहित में हठता हृद छोडो,
बदले समाज निजता तोड़ो।
चादर मैली शुद्धिकरण करा लो,
दुनिया बदली खुद भी बदलो।

भरा पिटारा सौगातों का,
बंद अमृतघट 'मंगल'खोलो।
सडांध से भरा जो कुनबा,
सरयू में आ कर मुख धो लो।।

-सुखमंगल सिंह

उस रात.....डॉ भावना

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उस रात
जब बेला ने खिलने से मना कर दिया था
तो ख़ुशबू उदास हो गयी थी

उस रात
जब चाँदनी ने फेर ली अपनी नज़रें
चाँद को देखकर
तो रो पड़ा था आसमान

उस रात
जब नदी ने बिल्कुल शांत हो
रोक ली थी अपनी धाराएँ
तो समन्दर दहाड़ने लगा था

उस रात
जब बेल ने मना कर दिया पेड़ के साथ
लिपटने से
तो ......
पहली बार 
पेड़ की शाखाएँ
झुकने लगी थीं
और बेल ने जाना था अपना अस्तित्व

पहली बार
बेला को नाज़ हुआ था अपनी सुगंध पर
चाँदनी कुछ और निखर गयी थी
नदी कुछ और चंचल हो गयी थी

पहली बार
प्रकृति हैरान थी
बहुत कोशिश की गयी
बदलाव को रोकने की
परंपरा -संस्कृति की दुहाई दी गयी
धर्म -ग्रंथों का हवाला दिया गया
पर ..... स्थितियां बदल चुकी थीं
-डॉ भावना

‘मज़बूरी’......मीनू परियानी

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आज राधा को कुछ ज्यादा ही देर हो गयी थी मै दो बार बाहर जा कर देख आई थी पर उसका दूर दूर तक पता नही था. राधा मेरी कामवाली बाई थी जो कभी कभी अपनी बेटी को भी काम पर ले आती थी। रानी उसकी बेटी जिसकी उसने छोटी उम्र में ही शादी कर दी थी.

तभी दरवाजे की घंटी बजी मैंने दरवाजा खोला तो सामने रानी थी मै कुछ कहती उसके पहले ही वो तेज़ी से रसोई में चली गई..

आज तेरी माँ कहा गई रानी , मैंने उससे पूछा,

रानी की आँखे पनीली हो आई ,

वो ..वो..कल आएगी मैडम जी। वो बर्तन साफ करते हुए बोली.

पर तू तो ससुराल जाने वाली थी ना? मैंने फिर पूछा

हां पर अब नहीं जाउंगी वो बोली।
क्यों,वो मेरा बापू मुझे दूसरी जगह भेजना चाहता है।
क्या मतलब?  मैंने थोडा आश्चर्य से पूछाः
वो हमारी जाति में लड़के वालों से पैसे लेकर शादी करते हे, अब कोई दूसरा ज्यादा पैसे दे रहा हे तो बापू ने मेरी शादी तोड़ दी है पंचायत बिठाकर,
कहता है हमारी लडकी को दुख देते हैं।
तो क्या सच में तुझे दुःख देते हैे?
नहीं मैडम जी। अब ससुराल में तो ये सब चलता है न। बड़ी सहजता से वो बोली, 'पर मेरा  पति बहुत अच्छा है", कहते हुए वो थोडा लजा गई। उसकी बड़ी बड़ी आँखें मानों सपनों से भर गई , 'तब तू मना क्यों नही कर देती", मैने पूछा।
नही वो बापू कहता हे तू अगर वहां गई तो फिर हम से रिश्ता नही रहेगा . अब मै पीहर वालो से रिश्ता कैसे तोड़ दूँ । मजबूरी है, बापू को तो पैसों का लालच है।
'पर तेरी माँ? वो क्या कहती है?
वो भी मजबूर है मैडम जी ,मेरा बापू भी तो उसका दूसरा मर्द है ,उसने भी उसके ज्यादा पैसे दिए थे।
बेहद उदास स्वर  में रानी बोली, उनके घरेलू मामले में कुछ न कर पाने को, मै भी मजबूर थी, सबकी अपनी अपनी मजबूरी थी, आँखों के कोरों पर छलक आये आंसुओ को धीरे से अपने हाथों से पोंछ कर रानी चली गई। उसे दूसरे घर जाना था काम करने 
-मीनू परियानी


क्योंकि प्रेम… मर चुका होता है .........मंजू मिश्रा

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अपेक्षाएं
जब प्रेम से
बड़ी होने लगती हैं
तब
प्रेम धीरे धीरे
मरने लगता है
विश्वास
घटने लगता है
प्रेम में तोल-मोल
जांच-परख
घर कर लेती है
तो प्रेम
प्रेम नहीं रह जाता
विश्वास विहीन जीवन
कब असह्य हो जाता है
पता ही नहीं चलता
जब पता चलता है
तब तक
बहुत देर हो चुकी होती है
सिर्फ पछतावा ही
शेष रह जाता है
क्योंकि प्रेम
मर चुका होता है !!




एकमुश्त ले लेना....निधि सक्सेना

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जब भी विदा लेना
एकमुश्त ले लेना!!
किश्तों में विदा 
तुम्हारे ठहर जाने की.
बेवजह उम्मीद जगाती है!!
जब भी विदा लेना
मुड़ कर न देखना
कि गुरुर के मोती
बेबस आँखों से 
कहीं झर न जायें!!
जब भी विदा लेना
वक्त का लिबास पहन कर आना
कि तुम्हारे लौट आने की आस का
फिर बेसबब इंतज़ार न रहे!!
- निधि सक्सेना

क्यूँ हो अभी भी दानव.... इतने तुम...अलका गुप्ता

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.जंगल की कंदराओं से निकल तुम |
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम |

क्यूँ हो अभी भी दानव.... इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?

मानवता आज भी इतनी निढाल क्यूँ ?
बलात्कार हिंसा यह.....लूटमार क्यूँ ?

साथ थी विकास में संस्कृति के वह |
उसका ही इतना.......तिरस्कार क्यूँ ?

प्रकट ना हुआ था प्रेम-तत्व.....तब |
स्व-स्वार्थ निहित था आदिमानव तब |

एक माँ ने ही सिखाया होगा प्रेम...तब |
उमड़ पड़ा होगा छातियों से दूध...जब |

संभाल कर चिपकाया होगा तुझे तब |
माँस पिंड ही था एक....तू इंसान तब |

ना जानती थी फर्क...नर-मादा का तब |
आज मानव जान कर भी अनजान क्यूँ ?

जंगल की कंदराओं से निकल...तुम |
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम||

क्यूँ हो अभी भी दानव.... इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?
-अलका गुप्ता 

चाँद बोला चाँदनी....गंगाधर शर्मा "हिन्दुस्तान"

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चाँद बोला चाँदनी, चौथा पहर होने को है,
चल समेटें बिस्तरे वक़्ते सहर होने को है।

चल यहाँ से दूर चलते हैं सनम माहे-जबीं,
इस ज़मीं पर अब न अपना तो गुज़र होने को है।

गर सियासत ने न समझा दर्द जनता का तो फिर,
हाथ में हर एक के तेग़ो-तबर होने को है।
तेग़ो-तबर=तलवार और फरसा (कुल्हाड़ी)

जो निहायत ही मलाहत से फ़साहत जानता,
ना सराहत की उसे कोई कसर होने को है।
मलाहत=उत्कृष्टता; फ़साहत=वाक्पटुता; सराहत=स्पष्टता

है शिकायत, कीजिये लेकिन हिदायत है सुनो,
जो क़बाहत की किसी ने तो खतर होने को है।
क़बाहत=खोट;अश्लीलता; ख़तर=ख़तरा

पा निजामत की नियामत जो सखावत छोड़ दे,
वो मलामत ओ बगावत की नज़र होने को है।
निज़ामत=प्रबंधन; नियामत (नेमत)=वरदान;
सख़ावत=सज्जनता; मलामत=दोषारोपण; बग़ावत=विद्रोह

शान "हिन्दुस्तान"की कोई मिटा सकता नहीं,
सरफ़रोशों की न जब कोई कसर होने को है।

गंगाधर शर्मा "हिन्दुस्तान"
(कवि एवं साहित्यकार)
अजमेर (राजस्थान)
gdsharma1970@gmail.com

मिसेज डोली......अभिषेक कुमार अम्बर

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एक दिन मिसेज डोली,
अपने पति से बोली।
अजी! सुनिए 
आज आप बाज़ार
चले जाइये।
और मेरे लिए 
एक क्रीम ले आइये।
सुना है आजकल 
टाइम में थोड़े,
क्रीम लगाने से 
काले भी हो जाते है गौरे।
ये सुनकर पति ने मुँह खोला,
और हँसते हुए बोला।
अरे! पगली
तू भी कितनी है भोरी,
क्या क्रीम लगाने से
कभी भैंस भी हुई है गोरी।
-अभिषेक कुमार अम्बर
abhishekkumar474086@gmail.com

बताइये मेरी क्लास क्या है ?...डॉ. भावना

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हथिया नक्षत्र ने
दिखा दिया है अपना जादू

बारिश की बूँदें
बूंदें नहीं रहीं  धार हो गयी हैं
मूसलाधार
गड्ढे ,नदी -तालाब
सभी भर गये हैं
उमड़ पड़ी हैं जलधाराएं
जिसमें डूब गये हैं खेत -खलिहान

खुश हैं मिडिल -क्लास
कि उमस भरी गरमी से
मिल गयी है निजात

नाखुश हैं लोअर -क्लास
कि मूसलाधार बारिश  ने
ढाह दिये हैं इनके घर
छीन लिया है आशियाना

खुश हैं बच्चे
कि कादो से सन जायेंगी गलियां
और लाख मना करने पर भी
ढाब बने खेत से
मार लायेंगे बोआरी मछरी
वन -विभाग के ऑफिसर खुश हैं
कि आंधी -पानी में गिरे पेड़
बढ़ा देंगे उनकी आमदनी के स्रोत

इस बीच
जबकि हथिया
अब भी दिखा रहा है अपना जादू
मुझे तलब हो आयी है
पकौड़े संग चाय की
बताइये मेरी क्लास क्या है ?
-डॉ. भावना
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